मानव नेत्र के बारे में पूरी जानकारी
नेत्र मानव शरीर का एक ऐसा महत्वपूर्ण अंग है जिसका कोई हिसाब किताब नहीं, क्योंकि इसके बिना आप इस रंगीन दुनिया की एक भी चीज नहीं देख पाएंगे तो क्या आपको यह पता है ? कि मानव नेत्र कैसे काम करता है ? मानव नेत्र में कौन-कौन से पार्ट्स होते हैं ? अगर आपका जवाब है – हां तो अच्छी बात है,लेकिन अगर आपका जवाब है- नहीं तो आज इस पोस्ट के जरिए हम आपको इसी के बारे में पूरी जानकारी बताने वाले हैं जिससे अच्छे से पढ़ने के पश्चात आपका नॉलेज कई गुना ज्यादा बढ़ जाएगा
मानव नेत्र
नेत्र, मनुष्य व सभी जीवों के लिए प्रकृति की एक बहुमूल्य देन है। नेत्र लगभग फोटो कैमरे की भाँति कार्य करता है, जिसका व्यास लगभग 25 मिमी होता है। नेत्र में वस्तुओं के वास्तविक प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनते हैं। नेत्र एक विशेष प्रकार का प्रकाशिक यन्त्र है। इसका लेन्स प्रोटीन से बने पारदर्शी पदार्थ का बना होता है।
मानव नेत्र की संरचना
नेत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं।
(i) दृष्ट पटल :- मनुष्य का नेत्र एक खोखले गोले के समान होता है, जिसका व्यास 25 मिगी होता है। यह बाहर से एक दृढ़ तथा अपारदर्शी श्वेत परत से ढका रहता है इस परत को दृढ़ पटल कहते हैं। ये नेत्र के भीतरी भागों की सुरक्षा तथा प्रश के अपवर्तन में सहायता करता है।
(ii) रक्तक पटल :- दृढ़ पटल के भीतरी पृष्ठ पर लगी काले रंग की झिल्ली को रक्तक पटल कहते है। रक्तक पटल आँख पर आपतित होने वाले प्रकाश का अवशोषण करता है तथा आन्तरिक परावर्तन को रोकता है। इस प्रकार यह कैमरे के प्रकाशरोधी बॉक्स की भाँति कार्य करता है।
(iii) कॉर्निया :- दृढ़ पटल के सामने का भाग उभरा तथा पारदर्शी होता है, इसे कॉर्निया कहते हैं। नेत्र में प्रकाश इसी भाग से होकर प्रवेश करता है।
(iv) परितारिका अथवा आइरिस :- कॉर्निया के पीछे एक रंगीन एवं अपारदर्शी झिल्ली का पर्दा होता है, जिसे आइरिस कहते हैं।
(v) पुतली अथवा नेत्र तारा :- आइरिस के बीच में एक छिद्र होता है, जिसे पुतली अथवा नेत्र तारा कहते हैं। यह गोल तथा काली दिखाई देती है। कॉर्निया से आया प्रकाश पुतली से होकर ही लेन्स पर पड़ता है। पुतली की यह विशेषता होती है कि अन्धकार में यह अपने आप बड़ी तथा अधिक प्रकाश में अपने आप छोटी हो जाती है। इस प्रकार नेत्र में सीमित प्रकाश ही जा पाता है। जब प्रकाश की मात्रा कम होती है, तो आइरिस की माँसपेशियाँ किनारों की ओर सिकुड़कर पुतली को बड़ा कर देती हैं, जिससे लेन्स पर पड़ने वाले प्रकाश की मात्रा बढ़ जाती है और जब प्रकाश की मात्रा अधिक होती है, तो पुतली की माँसपेशियाँ ढीली हो जाती हैं, जिससे पुतली छोटी हो जाती है और लेन्स पर कम प्रकाश आपतित होता है। इस क्रिया को पुतली समायोजन कहते हैं। नेत्र में यह क्रिया स्वतः होती रहती है।
(vi) नेत्र लेन्स :- आइरिस के ठीक पीछे प्रोटीन का बना पारदर्शक तथा मुलायम पदार्थ का एक द्विउत्तल लेन्स होता है, जिसे नेत्र लेन्स कहते हैं तथा यह अभिसारी प्रकृति का होता है। लेन्स के पिछले भाग की वक्रता त्रिज्या छोटी तथा अगले भाग की वक्रता त्रिज्या बड़ी होती है। लेन्स के पदार्थ का अपवर्तनांक लगभग 1.44 होता है।
(vii) नेत्रोद तथा जलीय द्रव :- कॉर्निया तथा लेन्स के बीच के भाग को नेत्रोद कहते हैं। इसमें जल के समान एक नमकीन पारदर्शी द्रव भरा रहता है, जिसे जलीय द्रव (Aqueous humour) कहते हैं। इसका अपवर्तनांक 1.336 होता है।
(viii) काँचाभ कक्ष तथा काँचाभ द्रव :- नेत्र लेन्स तथा रेटिना के बीच के भाग को काँचाभ कक्ष कहते हैं। इसमें गाढ़ा, पारदर्शी एवं उच्च अपवर्तनांक वाला द्रव भरा रहता है, इसे काँचाभ द्रव (Vitreous humour) कहते हैं।
(ix) रेटिना :- रक्तक पटल के नीचे तथा नेत्र के सबसे अन्दर की ओर एक पारदर्शी झिल्ली होती है जिसे रेटिना कहते हैं, इसे दृष्टि पटल भी कहा जाता है। यह प्रकाश सुग्राही होती है तथा इस पर दृष्टि तन्त्रिकाओं का जाल फैला रहता है। सभी वस्तुओं का प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनता है। दृष्टि तन्त्रिकाओं के द्वारा ही रेटिना पर बने प्रतिबिम्ब के रूप, रंग एवं आकार, आदि का ज्ञान मस्तिष्क को होता है। रेटिना के अन्दर प्रकाश सुग्राही में दो प्रकार की कोशिकाएँ पाई जाती हैं जो कोशिका प्रकाश की तीव्रता का आभास कराती हैं, वे दण्डाकार कोशिका कहलाती हैं। इसके विपरीत, जो कोशिका मनुष्य को वस्तु के रंग का आभास कराती हैं, वे शंक्वाकार कोशिका कहलाती हैं।
(x) पीत बिन्दु :- रेटिना के बीचों-बीच एक पीला भाग होता है, जहाँ पर बना हुआ प्रतिबिम्ब सबसे अधिक स्पष्ट दिखाई देता है, इसे पीत बिन्दु कहते हैं। इस भाग की सुग्राहिता सबसे अधिक होती है।
(xi) अन्ध बिन्दु:- जिस बिन्दु से दृष्टि नाड़ियाँ मस्तिष्क को जाती हैं, उस बिन्दु को अन्ध बिन्दु कहते हैं। इस बिन्दु पर प्रकाश का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस बिन्दु पर प्रकाश की सुग्राहिता शून्य होती है, जिससे इस बिन्दु पर बनने वाला प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता।